सोशल मीडिया का संशय .......

सोशल मीडिया का संशय .......
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पिछले दिनो कुछ भक्‍तो की लगातार गाली गलौज व धमकी से तंग आकर एन डी टी वी के पत्रकार रविश कुमार ने अपने टिव्‍टर और फेसबुक एकाउण्‍ट ही बंद कर दिया , लगभग इसी समय खबर आती हैं कि जी टी वी के उस पत्रकार को जेड श्रेणी की सुरक्षा मिल जाती हैं जिसे जिंदल ग्रुप से पेड न्‍यूज के लिऐ एक करोड रूपये मांगने के आरोप में जेल की सजा भी मिल चुकी हैं, खबर ये भी हैं कि व्‍‍हाट शाप,‍ टिव्‍टर और फेसबुक एकाउण्‍ट पर सरकार नजर ही नही रखेगी बल्कि नब्‍बे दिनो तक इनके मैसेज मिटाऐ नही जा सकेगें ,,,,,,,,,,
सोशल मीडिया निश्‍चय ही प्रभावी तो हैं फेसबुक ,ट्विटर आदि साइट्स पर सक्रिय जनमानस समाज के ही विभिन्न तबकों ,विचारधाराओं के वे भडासी लोग हैं ही तो हैं, जो समाज और उसकी व्‍यवस्‍‍था पर नजर रखने के साथ साथ उसे टटोलने और कुरेदने का भी प्रयास करते हैं , जो प्रिंट मीडिया के दौर में संपादक के नाम पत्र लिखा करते थे और अपनी योग्‍यता, रूचि के अलावा अपनी देश, समाज के लिऐ कुछ करने की तमाम इच्‍छा एक संपादक की भरोसे सिमट कर रह जाती थी , जिस पर संपादक का सहमत होना जरूरी होता था, अब व‍ही लोग सोशल मीडिया पर लोग अपनी बात धड़ल्ले और बेबाकी से लिख रहे हैं । अख़बारों के पत्रकारों-सम्पादकों और चिंतकों से ज्यादा लोकप्रिय चेहरे सोशल मीडिया पर सुर्खियां और टिप्पणियां बटोर रहे हैं । आज कल तक अनजान रहे चेहरों के पीछे बड़े-बड़े चिंतक ,लेखक ,पत्रकार दौड़ लगा रहे है ,उसके लिखे की भर्त्सना या प्रशंसा कर रहे हैं कोई बात छुपाई या दबाई नहीं जा सकती है और यही तो सोशल मीडिया की ताकत है । जो स्‍‍थापित मीडिया के लिऐ चुनौति बन कर उभर गई हैं, अब समाचार की विषयवस्‍तु और उसके पीछे के मनोविज्ञान पर नजर रखने के साथ साथ आवश्‍यकतानुसार पीछे के सच को भी जगजाहिर किया जा रहा है , सोशल मीडिया, जिसमें पाठक और श्रौता को कम से कम संपाद‍क अथवा मालिक की विचारधारा के सामने नतमस्‍तक होना जरूरी नही होता, आज समाज व मीडिया के धुरंधर भी सोशल मीडिया पर समाज के अनजाने व्यक्तियों की लिखी बातों ,प्रतिक्रियाओं से सोचने को मजबूर हो रहा है, और जब यही तबका समाज और राजनीति की तमाम विसंगतियो पर सीधे प्रहार कर रहा हैं, जिससे राजनीति तिलमिला रही हैं, जनता को बेवकूफ और गुलाम समझने वाली सत्‍ता और अपने खत्‍म होते एकाधिकार से प्रजातांत्रिक व्‍यवस्‍‍था अपने सुनियोजित पैतरों में की जाल में अब स्‍‍थापित मीडिया को जन मीडिया से अलग कर धन मीडिया के गले में अपनी विचारधारा का प‍टटा बांध रही हैं , और जन मीडिया पर नजरे तरेर रही हैं , पिछले 30 अगस्‍त साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित एक बुजुर्ग कन्नड़ लेखक माल्‍लेशप्‍पा एम कालबुर्गी की गोली मार कर हत्‍या इसी तरह दा‍भोरक और पंसारे की हत्‍या , पत्रकार निखिल वागले को धमकी जैसे सैकडो उदाहरण हैं जो इसी मानसिकता की ओर र्इशारा करते हैं, क्‍या इसके पीछे वो साम्राज्यवादी सत्ता नही हो सकती जो क्रान्ति-पथ पर भय का अंधेरा कायम रखना चाहती हैं......?
समाज के भीतर सत्ता, धर्म, और राजनीति की बुराइयों को उजागर करने वाला सिर्फ लेखक ही होता है। जिसके विचारों से ही आमजनो में अधिकारबोध और सत्‍ता में दायित्‍व बोध जाग्रत होता हैं,और इसलिऐ जनता को गुलाम समझने वाली सामंती सत्‍ता लेखक हमेशा खटकता रहता हैं , सच्चा लेखक वही लिखता है जो जनता के पक्ष में लिखा जाना चाहिए। दरअसल अन्‍याय के प्रति आत्‍मबल तो सब में होता हैं पर उसे जाग्रत करने का मार्ग एक कलम द्वारा ही प्रशस्‍त किया जाता हैं जो निश्‍चय ही हमारी गौरवशाली प्रजा‍तांत्रिक व्‍यवस्‍‍थाओ और सामाजिक सांस्‍क्रतिक ताने बाने के लिऐ आत्‍मघाती साबित हो रहा हैं , सिक्‍के के दूसरे पहलू से इन्‍कार नही हैं सोशल मीडिया का इस्तेमाल भड़काऊ ,गैर जिम्मेदार कृत्यों के लिए भी हो रहा हैं अभद्र भाषा का प्रयोग गैर जिम्मेदाराना हरकतें ,जो अक्षम्‍य हैं, इस‍के लिऐ हमें स्‍वयं ही अपने मापदंड तय करने होगें जैसा कि दूसरे क्षेत्रो के लिऐ भी लागू होता हैं, इस से इन्‍कार नही कि प्रजातंत्र के बिगडते स्‍वरूप में सोशल मीडिया रूपी यह एक चमकदार आईना जिसमें हर कोई अपनी सामाजिक छबि को समझ कर सुधार सकता हैं, इस पर अंकुश कोई सार्थक विकल्‍प नही हैं ,,,,,,,,,, 
सतीश कुमार चौहान भिलाई

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