अन्ना का अतिवाद
अन्ना फेक्टर पर बात करते हुऐ एक मित्र द्वारदिया यह तर्क कुछ बैचेन सा लगा कि ऐसे आन्दोलन जो लोकलुभावने होने की वजह से व्यापक जनसमर्थन बटोरते हैं उनमें अतिवाद पनपता हैं, जो समाज में तेजी से जहर घोलता हैं, मेरे जहन में तुरंत अन्ना की अकडती उगली और तरेरती आंखो की भाषा समझ में आने लगी, साथ ही ये भी समझ आने लगा की प्रजातंत्र में जनसमर्थन से बना जनप्रतिनीधि कई बार दंबगई पर क्यो उतारू हो जाता हैं, जिसे हम समय समय पर महसूस कर व्यवस्था को कोसते हैं, अतिवाद को परिभाषित करने के कई प्रकार हो सकते हैं। इसकी व्याख्या कई तरह से की जा सकती है। लेकिन इससे शायद ही कोई असहमत हो कि हम शनै:-शनै: अतिवादी होते जा रहे हैं जिसका प्रभाव हमारे जीवन के आचार;विचार और व्यवहार पर चौतरफा दिखाई दे रहा है। यह प्रभाव जितना सामाजिक है उतना मानसिक भी जितना सार्वजनिक है, उतना व्यक्तिगत भी और जितना बाहरी है उतना आंतरिक भी। अतिवाद विचार का है , मानस का है , वृत्ति का है , यहां तक कि शांति और सहिष्णुता का भी है। हमारे ऊपर निरंतर हावी रहने वाली अशांति , अस्थिरता इस बात का निरंतर अहसास कि कहीं कुछ गड़बड़ है या