खरी खरी मंहगाई
दस पैसे कप चाय तीस पैसे का दोसा से दादाजी का नाश्‍ता हो जाता था आज ये सच्चाई जितनी सुखद लगती हैं,उतनी ही दुखद लगती हैं कि हमारा पोता बीस रुपये कप चाय पीकर दो सौ रुपये का दोसा खाऐगा, बात साधारण सी इसलिऐ हो जाती हैं क्योकि आज जिस वेतन पर पिताजी सेवानिवृत हो रहे हैं बेटा आज उस वेतन से अपनी सेवा की शुरुवात कर रहा हैं, सन् 1965 में पैट्रोल 95 पैसे लीटर था चालीस सालो में पचास गुना बढ गया तो आश्‍चर्य नही की 2050 में भी अगर हम इसके विकल्प को न तलाश पाऐ तो 2500 रुपये लीटर आज जैसे ही रो के या गा के खरीदेगे, मंहगाई के नाम पर इस औपचारिक आश्‍वासन से किसी का पेट नही भरता पर कीमत का बढना एक सामान्य प्रक्रिया जरुर हैं पर ये सिलसिला पिछले कुछ सालो से ज्यादा ही तेज हो गया हैं जहां आमदनी की बढोतरी इस तेजी की तुलना में अपेक्षाकृत कमजोर महसूस कर रही हैं वही से शुरू होती हैं मंहगाई की मार, दरअसल मंहगाई उत्पादक व विक्रेता के लिऐ तो मुनाफा बढाने का काम करती हैं पर क्रेता की जेब कटती जाती हैं
देश में तेजी से बढती मंहगाई पर राजनेताओ की लम्बे समय से खामोशी समझ से परे हैं बस कैमरे के सामने आपस में कोस कर इतिश्री कर ली जा रही हैं पुर्व में प्याज के दाम पर सरकार गिरने की जैसी बैचेनी कहीं भी दिखती नही दरअसल इस देश में भष्‍ट्राचार और मंहगाई अब प्रजातांत्रिक मुद्रदा ही नही रहा, कहानी कुछ इस तरह हैं कि डीजल के दाम बढे तीन रुपये लीटर, औसतन सौ सवारी लेकर चलने वाली बसे रोज तीन फेरे लगाती हैं एक फेरे में लगते हैं बीस लीटर डीजल, बस मालिको ने भी तीन रुपये सवारी बढाने के नाम पर हडताल, यातायात अस्त व्यस्त, मंत्री जी ने सक्रियता का परिचय देते हुऐ बस मालिको के साथ पांच सितारा बैठक ली बात दो रुपये प्रति सवारी पर सफलतापुर्वक सेंटल कर ली गई, बस मालिको का मंहगाई बढने से प्रतिदिन 1140 रुपये का लाभ बढ गया, उसी एवज में तमाम मंत्री संत्री की कमीशन बढ गई, सिर्फ सवारी के जेब पर पडी मंहगाई की मार जिसे कहा जाता हैं कानून सम्मत लूट.....राजनेताओ की चुप्पी के अलावा आम लोगो की बेफिक्री का ही नतीजाहैं कि आक्रामक रुप से बढती मंहगाई के बावजूद भी केन्द्र सरकार का लोक सभा चुनाव फिर जीत गई । जिस मध्यम वर्ग की दुहाई में छाती पीट पीट कर मंहगाई की पैरवी की जाती हैं दरअसल वही विश्‍व का सबसे बडा अतिवाद से ग्रसित खरीददार हैं जो अपनी जेब से ज्यादा बाजार को टटोल रहा हैं और इससे पनपते असन्तोष व हीनभावना पर आग में घी डालने का काम कर रहा हैं विज्ञापन जगत जो इस बात में माहिर हैं कि आम आदमी से पैसा कैसे निचोडा जाता हैं चतुर वर्ग इसलिऐ व्यवस्था के साथ मिलकर उसको खोखला करना या फिर अंगूर खट्रटे कह कर उसे कोसते रहना ही उचित समझ रहा हैं , आज जिस दस साल में हम मंहगाई बढने की बात करते हैं उसी अंतराल में आश्‍चर्यजनक ढंग दस गुना ज्यादा कार की बिक्री बढी जिसके ईधन व लोन रकम में ही इस मध्यमवर्ग की आय का एक बडा हिस्सा खिसक रहा हैं,गौरतलब हैं की लाख कोशिशो, कटौतियो के बाद मध्यमवर्ग आज लोन की कार घर के सामने खडाकर ऐसे फूल के बात करता हैं लम्बी दूरी दोडकर धावक विजयी सांस भरता हैं जबकी न तो कार खडी करने की जगह हैं न चलाने बैठने का सहूर.....।
मंहगाई का हास्यास्पद्र पहलू यह भी हैं कि रतन टाटा के द्वारा भारतीय मघ्यम वर्ग के बजट को ध्यान में रख कर बनाया नैनो का सबसे सस्ता माडल सबसे कम बिका मंहगे माडल की मांग आज भी बनी हुई हैं अर्थात सस्ती क्यों ले, अरहर दाल नब्बे रुपये किलो हुई बाजार में विकल्प के रुप में मटर दाल को पैतीस रुपये किलो लाया गया जिसमे अपेक्षाकृत ज्यादा फैट, प्रोट्रीन, कारर्बोहाईड्रट और मिनरल और विटामिन हैं और बनाने बघारने की कला के साथ ज्यादा स्वाद भी लिया जा सकता था पर गले उतरना तो दूर इसकी पूछ परख भी नही हुई । दरअसल उपयोगिता से ज्यादा सुविधा को महत्व दिया जा रहा और इसी मनोविज्ञान के साथ घातक ढग से लोगो में सघर्ष करने की क्षमता खत्म हो रही हैं परिणामत आत्महत्या की प्रवृति बढी इसीलिऐ इस सच को समझ लेना चाहिये की अमीर बनने के लिऐ खर्च करना जरुरी हैं, खर्च करना सीख गऐ फिर, कमाना तो खुद ही सीख जाऐगे, कटुसत्‍य है कि बचत करके कोई अमीर नही बना ।दुर्भाग्य से प्रजातंत्र का वोट बैंक इसी बात से बेपरवाह सामाजिक आर्थिक अराजकता फैला रहा हैं जिस सरकारी खजाने से अच्छे सडक, अस्पताल, स्कूल, पानी, कुटीर व पांरम्पारिक व्यवसाय के अलावा अनाज व उर्जा उत्पादन में उपयोग होना चाहिये वह मुफ्तखोरी के चावल बिजली बांटकर वोट बैंक बनाने में खर्च किया जा रहा हैं इस वजह से लोग मेहनत कर अपनी जरुरते जुटाने के बजाय मक्कार बनकर सरकारी सहूलियतो के लिऐ गरीब बना रहना अपेक्षाकृत ज्यादा बेहतर समझ रहे हैं देश के तमाम नीतिर्निधारक समृद्ध राष्‍ट्र निर्माण के लिऐ अगर अच्छे स्वास्थ, शिक्षा, रोजगार,सडक, पानी जैसी बुनियादी आवश्‍यकताओ को उचित नही समझते तो फिर अनिश्चित व दगाबाज वर्षा, बीज, और खाद पर जी तोड मेहनत कर भी कुछ उत्पादन की उम्मीद पर जीने वाला कुछ उत्‍पादन कर भी ले तो न्यूनतम् मूल्य के लिऐ आत्महत्या करने को मजबूर होने के बजाय किसान क्यों न अपनी खेतीहर भूमि को किसी बिल्डर या उद्योगपति को मोटी रकम में बेचकर वह भी जींस टी शर्ट पहन चकाचैंध करते बडे बडे शापिंग माल में पिज्जा बर्गर खाते हुऐ घूमे क्योकी एक छोटी जमीन के टुकडे का मालिक किसान भी लोन की शहरी जिन्दगी से बेहतर हैं, इसलिऐ बढती जनसंख्या के बावजूद लगातार अनाज उत्पादन में कमी आई हैं किसान के प्रति सरकारी बेरुखी के आत्‍मद्याती परिणाम हैं जय जवान जय किसान के देश में जब जवान सत्ता की सहूलियतो से महज वोट बैंक बनकर निकम्‍मा हो जाऐगा और किसान बेबस लाचार तो मंहगाई के आगे अराजकता भी मुंह बाऐ खडी हैं सत्‍ता से ही जुडे लोग वे दलाल किस्म के लोग भी हैं जो आयात निर्यात की कमीशनबाजी और जमाखेरी के खेल से अकेले महाराष्‍ट्र में पिछले प्‍याज के नाम पर तीन हजार करोड डकार गऐ थे
सतीश कुमार चौहान भिलाई 098271 13539

Comments

Popular posts from this blog

इमोशनल अत्‍याचार