आम आदमी ..................

पडोसी दादाजी महंगाई की बात करते हूऐ कहते हैं कि  जब मैं जवान थे तो बाल संवारने सजाने के लिऐ नाई को शौ‍क से 5 रुपया देता था । कुछ साल बाद आफिस क्‍लास बने रहने के लिऐ 20  रुपये देने लगा । लेकिन अब जब मेरे बाल लगभग गायब हो गए हैं और खुद भी रिटायर हूं तो 50 देने पड र‍हे हैं फिर भी उसकी शिकायत बनी ही र‍हती हैं की महंगाई बढ गई हैं ,
दरअसल समय समय पर बुनिया‍दी आवश्‍यकताओ की छोटी छोटी बढोतरी मीडिया और राजनैतिक बयानबाजी हमें झकझोरती भर है , मसलन व्‍यापक आधार के सा‍‍थ पैट्रोल और सब्‍जी के दाम बढने को लेकर कोसने के लिऐ हमारे पास सरकार नाम का ही एक विकल्‍प हैं , जब‍की विरोधाभाषी जीवन शैली और विसंगतियो से हम लापरवाह और अन्‍जान हैं  जो हमारे बजट का एक बड़ा हिस्सा खा रहा है। पिछले कुछ सालों में सभी लोगों, खासकर मिडल इन्कम ग्रुप को मिलने वाली सुविधाओं की बाढ़ सी आ गई हैं दरअसल आमदनी का बड़ा हिस्सा चार चीजों पर खर्च होता है। पहला बच्‍चो की पढाई , दूसरा लोन, तीसरा ट्रांसपोर्ट पर और चौ‍‍था इलेक्‍ट्रानिक ,  चिन्‍तन यहां से शुरू होता हैं कि बच्‍चो की पढाई जो रोजगार मुलक हो न हो पर ‍अपनी हैसियत के हिसाब से पांच सितारा होनी ही चाहिये, घर का लोन पुरा न हो कार का लोन शुरू , पैट्रोल के नाम पर रोना पर पप्‍पू ,बबली, मम्‍मी सबके लिऐ दो चक्‍के और सबके सब के लिऐ चार चक्‍के की गाडी होनी ही हैं , निसन्‍देह बिजली के दाम तेजी से बढे हैं सा‍‍‍‍थ ही बढी इलेक्‍ट्रानिक समानो की  खपत, इसके अलावा सप्‍ताह में एक बार होटलिग, शापिंग माल का जाना इसी तरह बच्‍चो का जिम और ब्‍यूटी पार्लर का नियमित जाना ये अनावश्‍यक खर्च भी हमारे स्‍टेट्रस सिंबल में हैं , प्राय : सभी घरों के बच्चे ट्यूशन जाने लगे हैं। पहले घरों में एक टेलीफोन था, अब चार मेंबरों के घर में पांच मोबाइल फोन होते हैं। 
पिछले कुछ सालों में सरकार ने लगभग सभी सेवाओं को सर्विस टैक्स के दायरे में ला दिया है। इससे हमारा खर्च लगभग 2 पर्सेंट तक बढ़ गया है। साग-सब्जी की कीमत बढ़ने पर सभी हायतौबा करते हैं  पर  हम और हमारा मीडिया दोनो चूप रहे  जिससे लगभ्‍ग हर सर्विस की लागत बढ गई  दृसरा, बिजली का बिल तेजी से बढ़ा है। थिएटर में फिल्म देखना पिकनिक से कम नहीं रह गया है। तमाम तरह के लोन पर ईएमआई बढ़ गई है। सरकार अपने कर्मचारियों का महंगाई भत्ता बढ़ा देती है। लेकिन सविर्सों की महंगाई को कंपेंसेट करने के लिए उसके पास कोई हथियार नहीं है।  लेकिन सेवाओं की कीमत बढ़ने पर चुप ही रहते हैं ,  क्योंकि लोगं  चुके  मान     अपना खर्चा कम करने लगे तो समाज में उनका 'लेवल' नीचे आ जाएगा। वे 'ज्यादा कमाओ और ज्यादा खर्च करो' में विश्वास करने लगे हैं। स्कूटर से कार और कार से दूसरी कार, टीवी से एलसीडी, साल में एक बार देश में और फिर विदेश में यात्रा करना अब लाइफस्टाइल में शुमार होने लगे हैं।
बीपीएल से नीचे वाले वर्ग को तो सरकार वोट के लिए पुचकारती रहती है। राशन की दुकानों का गल्ला बढ़ा देती है या नरेगा जैसी स्कीमें लॉन्च कर देती है। बैंक कर्ज माफ कर देती है। मुफ्त में या कम कीमत पर आवास दे देती है। इतने सब के बाद भी ये लोग अपनी सेवाएं महंगी करने का कोई मौका नहीं चूकते। भला सरकार के यहां इसका कोई हिसाब है कि काम वाली बाइयां अपनी पगार साल में कितनी बार बढ़ा लेती हैं, या कपड़े इस्तरी करने का चार्ज किस हिसाब से बढ़ता है? बाजार में आटे की कीमत प्रति किलो एक रुपया बढ़ती है तो ढाबे वाले एक रोटी की कीमत एक रुपया बढ़ा दे हैं। बचत के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं बचेगी। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में इन्वेस्टरों की संख्या कम हुई है। शेयर बाजार और म्यूचुअल फंड में निवेश कम हुआ है। बीमा जरूर कराया जाने लगा है, क्योंकि वह भी लाइफस्टाइल का एक अंग है। यह एक खतरनाक ट्रेंड है, क्योंकि भारत अभी तक जो ग्लोबल फाइनैंशल क्राइसिस से बचा हुआ है, उसका कारण यहां के नागरिकों की उच्च बचत ही है। पर अंतत मीडिल क्‍लास हैं कहां ..... ? जिस मीडिल क्‍लास  ने अपने सपनो को साकार करने के लिऐ कडी मेहनत कर  लोन की बैसाखी से अपने को उठाया क्‍या सच नही कि उसी ने जब पुरा विश्‍व मंदी की चपेट में था तब अपने देश की अर्थव्‍यव्‍सथा , बैकिंग से‍कटर और कारर्पोरेट बाजार को  बूम किया हैं .....
सतीश कुमार चौहान   1/ 2 /2013

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