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धार्मिक उन्‍माद में लहलहाती सत्‍ता की फसल ...

  .     एक गैरराजनैतिक, लगातार जिन्‍दगी से जुझते मध्‍यमवगींय आम आदमी का ये सवाल ,क्‍या सच में खौफनाक बन चुकी आज की राजनीति को कोई भी चुनौती देने की हिम्मत नही जुटा पा रहा. की शिनाख्‍त करते हुऐ मैं भी बेबस सा महसूस कर रहा हैं, देश के बुनियादी सवालो पर सरकार की नीति के अच्‍छे दिन का कुछ इंतजार किया जा सकता हैं  पर सरकार की नियत से पनप रहे अलगाव और अस‍हमति को तो नही रोका जा सकता,पडोसी देश के फिरकापरस्‍तो और देश के नक्‍सलवाद क्‍या कम तकलीफदेह हैं, जो हम बार बार कुछ अतिमहत्‍वकांक्षी उन्‍मादी गिरो‍ह के सांप्रदायिकता की चपेट में आ जाते हैं, अफसोस की इनके पीछे भी सत्‍ता की ही महत्वकाक्षा काम करती हैं ,सं प्रदायिकता मनुष्यता के विरोध से ही शुरू होती है। मनुष्य मनुष्य के प्रति विश्वास और प्रेम के स्थान पर अविश्वास और घृणा घोल दी जाती     है । पूर्वाग्रह और अफवाहे इस विरोध और घृणा के लिए खाद     पानी     का     काम     करते     है । सांप्रदायिक उन्माद बढ़ने पर धर्मिक उत्तेजना बर्बर की स्थितियों को जन्म देती है। जहां हम यथार्थ को समग्रता में न देखकर खंड-खंड में देखना शुरू कर देते     है,