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Showing posts from September, 2010

कौन/कैसा गरीब............?

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एक मेहनती व्‍यापारी अपने व्‍यापार का बोझा लिऐ रोज आते जाते एक नौजवान को कई दिनो से पेड के नीचे आराम करते देख रहा था, एक दिन सुसताने के नाम पर वह भी उसी के पास बैठ कर बतियाने लगा, यह जानकर कि नौजवान कुछ काम ही नही करता हैं, वह आदतन उसे समझाने लगा मेहनत ईमानदारी की बाते नौजवान को उबाउ लगी तो उसने टोक दिया की आपकी यह लम्‍बी लम्‍बी बाते आसान तो हैं नही और इनसे मुझे हासिल क्‍या होगा....? व्‍यापारी ने शांति व आराम का जीवन मिलने की बात की तो नौजवान तपाक से बोल पडा . आराम से पेड के नीचे स्‍वस्‍थ हवा में बेफ्रिक पडा हूं, इससे तो अच्‍छा नही होगा,     आज पुरे अधिकार के साथ सब कुछ समाज से नोंच लेना देश में बढती बेबसी और गरीबी का मनोविज्ञान भी ऐसा ही बन रहा हैं जिसके साथ वोट बैंक की गंदी राजनीति मिल कर ऐतिहासिक आधार पर धार्मिक और जातिय से भी ज्‍यादा भयावह रूप से समाज में आर्थिक विषमता की खाई खोद रही हैं, जबकी दूरस्‍थ व काफी अन्‍दरूनी और अभाव में गुम हो रही जिन्‍दगीयो तक न तो सरकार पहुच पा रही हैं न विकास, और न ही किसी को इसकी चिन्‍ता हैं,संसद में बैठने वाले सयानो को ये बात समझ में आ

वाशबेशिन बनाम मेरा शहर

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हमारे नऐ घर के प्रवेश उत्‍सव की रंगोली भी नही हटी थी कि विकास प्राधिकरण के लोगो ने न घर के दरवाजे पर ही नाली के नाम पर भारी गउडा खोद दिया,पदस्‍‍थ इन्‍जीनियर से बात की तो उन्‍होने पुरे नियम गिना डाले साथ ही सरकारी मजबूरी भी जाहिर करते हुऐ अन्‍त में एहसान जताते हुऐ पुनं पुरा बनवा भी दिया, फिर तो साहब से नियमित हाय हैलो भी होने लगी, एक दिन साहब कुछ कागज पत्‍तर ले कर आऐ और औपचारिकता के तहत सन्‍तोषस्‍पद कार्यसम्‍पन्‍न के प्रमाण पत्र में दस्‍तखत करने को कहने लगे हमने साहब के साथ चाय पीते पीते पढना शुरू किया नाली की लम्‍बाई, गहराई, पुलिया की संख्‍या, गुणवत्‍ता सब गोलमाल साफ दिख रहा था, काफी भष्‍ट्राचार की बू आ रही थी,, हम एहसान में दबे कुछ टोका टिप्‍पणी करते हुऐ दस्‍तखत कर ही दिये, यही साहब लगभग सत्रह साल बाद कल शाम होम डेकोर के यहां मिल गऐ, समय के साथ साहब में बडे अफसरी का रूतबा झलक रहा था साहब की सरकारी गाडी मयचालक बाहर खडी थी, बातचीत से पता चला साहब अपने घर के लिऐ वाशबेशिन लेने आऐ हैं, पानी के अलावा ठंडा भी पी चुके हैं पर वाशबेशिन नही जम रहा हैं, ,साईज डिजाईन, रंग, गहराई, ब्राड,दाम और फ

पुलिस .... मजबूती या मजबूरी

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पिछले दिनो हमारे एक मित्र का बरामंदे में रखा गैस सिलेण्‍डर चोरी हो गया,स्‍वाभविक था, कि थाने में रिर्पोट लिखाई जाय, मित्र के साथ मैं भी थाने चला गया जहां पहुचते ही कुछ असहज महसूस होने लगा, गलियारेनुमा माहौल में आपस में उलझे चार पांच टेबल जिसके साथ लगी कुर्सीयो पर सरकारी बाबु किस्‍म के तीन वर्दीधारी लोग बैठे, एक आदमी प्रार्थी की शक्‍ल में भी खडा था, दिवार पर महापुरूषो की फोटोमय मकडी के जाल लटकी थी , खिडकी और चौखट पान गुटके से दागदार थी, एक आदमी आदमी बगल में कैमरा और मुंह में गुटका दबाऐ समाज शास्‍त्र की बातें कर रहा था, संभवत किसी समाचार की जुगत भीडा पत्रकार था,जेलनुमा दरवाजे में भी दो लोग झांक रहे थे, वेलकम स्‍माईल की कोई गुजाईश नही थी, हमने दफतरी अभिवादन की पंरम्‍परा में औपचारिक मुस्‍कान तो बखेरी पर कोई रिस्‍पांस दिखा नही, उनकी बाते और हमारा खडा रहना दोनो ही अपनी अपनी जगह अटपटा महसूस हो रहा था, हमारे मित्र को शाम की ओ. पी. डी. में जाना था इसलिऐ मुंशी साहब को टोक ही दिया, सर एक कम्‍पलेशन लिखानी थी, शायद बात किसी को भी हजम नही हुई माहौल में कुछ कडवाहट सी घुलती प्रतीत हुई, एक ने कुछ उस

नेता जी का मजगा

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पिछले दिनो सुबह सुबह जब आफिस जाने की जल्‍दबाजी थी तभी पडोस की बुजूर्ग आण्‍टी ने सडक पार चौक के मेडिकल से ब्‍लड प्रेशर की दवाई लाकर देने का आग्रह कर दिया , दवाई जरूरी थी और कोई विकल्‍प भी नही था हम बाईक से निकले तो प्राय खाली रहने वाले चौक पर भी जबरजस्‍त जाम लगा था भारी पुलिस इंतजाम, एक महिला पुलिस अधिकारी एक हाथ में वाकी टाकी दूसरे हा‍थ में मोबाईल लऐ मंद मंद मुस्‍कान के साथ किसी से बतियाते हुऐ सडक के शहनशाह के समान बीच चौक में खडी थी, आस पास कुछ पटिया छाप नेता हाथ में मोगरे की माला लिये खीस निपोरे खडे थे सडक के बीचो बीच एक लम्‍बी पटाखे की लडी बिछी हुई थी जिसके एक सिरे पर एक माचिस बाज तैनात था ढोल मास्टर नशे में टुन्‍न ढोल का शोर मचाऐ हुऐ था, स्‍कूली बसो को भी सडक से किनारे लगा दिया गया था ठूसे पडे बेचारे बच्‍चे भी छटपटा रहे थे, इस बीच में ही फंसी एम्‍बूलेंस की लगातार दम तोडती बैटरी भी उसके सायरन को हिचकियो में बदलती प्रतीत हो रही थी, मेरे जैसे सेकडो लोग, डियूटी जाने वालो को गेट बन्‍द होने व हाजिरी कटने का डर सता रहा था हर तरफ बैचैनी साफ दिख रही थी खडे लोगो की भारी भीड गवाह थी की जाम ल

बैग/झोला छाप डाक्‍टर

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बैग/झोला छाप डाक्‍टर देश की तमाम सरकारी योजनाओ की बात करते हुऐ जिस तरह जुबान गंदी महसूस होती हैं वही हालात अब बुनियादी बातो पर भी होने लगी हैं, गुजरात के सरकारी अस्‍पताल में दो नवजात इन्‍कुबेटर शारीरिक तापमान बनाऐ रखने वाले उपकरण में जलकर राख हो गऐ, हाल में ही चार बच्‍चे सरकारी अस्‍पताल में वैक्‍सीन लगाते ही ठंडे पड गऐ, इन मासूम नादान बच्‍चो के परिवारो के अलावा सब भूल गऐ, पैरा मेडिकल स्‍टाफ को कोस सरकार ही नही हम आप सब चुप ....ये तो रोज की बात हैं पर हम तो बेहतर इलाज ले ही रहे है, बेहतर अर्थात पांच सितारा...... पिछले दिनो हमारे औसत दर्जे के शहर में स्‍वाईन फलू नाम की मीडियाई चिल्‍लपौ मच गई, शहर के एक मीडियापरस्‍त खाटी किस्‍म के पुराने दाउ व राजनैतिक गिरोहबंदी से चल रहे अस्‍पताल में मरीज की भर्ती होने से लेकर इलाज प्रक्रिया को मीडिया द्वारा आवश्‍यक अनावश्‍यक तामझाम के साथ नियमो के खिलाफ मय फोटो दिखाया पढाया जाने लगा ,इलाज से जुडे मरीज को मिल रहे स्‍वास्‍थ लाभ की राम कथा सुनाते रहे और मरीज राम को प्‍यारा हो गया, अब इलाज से हीरो बन रहे डाक्‍टर / अस्‍पताल ही नही पुरी सरकार कटघरे में