अन्ना का अतिवाद


अन्‍ना फेक्‍टर पर बात करते हुऐ एक मित्र द्वारदिया यह तर्क कुछ बैचेन सा लगा कि ऐसे आन्‍दोलन जो लोकलुभावने होने की वजह से व्‍यापक जनसमर्थन बटोरते हैं उनमें अतिवाद पनपता हैं, जो समाज में तेजी से जहर घोलता हैं, मेरे जहन में तुरंत अन्‍ना की अकडती उगली और तरेरती आंखो की भाषा समझ में आने लगी, साथ ही ये भी समझ आने लगा की प्रजातंत्र में जनसमर्थन से बना जनप्रतिनीधि कई बार दंबगई पर क्‍यो उतारू हो जाता हैं, जिसे हम समय समय पर महसूस कर व्‍यवस्‍था को कोसते हैं, अतिवाद को परिभाषित करने के कई प्रकार हो सकते हैं। इसकी व्याख्या कई तरह से की जा सकती है। लेकिन इससे शायद ही कोई असहमत हो कि हम शनै:-शनै: अतिवादी होते जा रहे हैं जिसका प्रभाव हमारे जीवन के आचार;विचार और व्यवहार पर चौतरफा दिखाई दे रहा है। यह प्रभाव जितना सामाजिक है उतना मानसिक भी जितना सार्वजनिक है, उतना व्यक्तिगत भी और जितना बाहरी है उतना आंतरिक भी। अतिवाद विचार का है, मानस का है, वृत्ति का है, यहां तक कि शांति और सहिष्णुता का भी है।
हमारे ऊपर निरंतर हावी रहने वाली अशांति, अस्थिरता इस बात का निरंतर अहसास कि कहीं कुछ गड़बड़ है या कुछ ठीक नहीं है, और इसके कारण उपजने वाला उत्पीड़न और निराशा ये सब अतिवाद की ही देन है। ऐसी ही परिस्थितियां जन्म देती हैं ऐसे वादों, विवादों, प्रवृत्तियों को जिनकी कल्पना आज से कुछ समय पहले शायद महज हंसी-ठिठोली में ही की जाती होगी। कहीं कुछ है जो बराबर सुलगता रहा है और अस्वस्थ करता रहता है। ठीक वैसे ही जैसे किसी खुशबूदार एयर कंडीशंड कमरे में प्लास्टिक के तार जलने की गंध से होता है। ऐसी बेचैनी जो हर समय संकेत देती है भावी विस्फोट का। सबसे बुरी बात यह है कि यह अहसास वैश्विक है इसलिये इससे कहीं भी छुटकारा नहीं है। दुर्भाग्यजनक हैं कि मीडिया भी चीख चीख कर अपनी सारी प्रभावशाली शक्ति का प्रयोग कर इस अहसास को दबाने के बजाय बढाने काम कर रहा है। दु:ख की बात यह है कि मीडिया भी इस अहसास से बचा नहीं है। मीडिया भी अंदर से उतना ही अस्थिर और अशांत है जितना शेष समाज। अपने अतिवादी प्रयासों की पराकाष्ठा से मीडिया उस अहसास को दबाने की चेष्टा में और अधिक उघाड़ता सा दीखता है। ऐसे में एक अल्प विराम जरूरी है, जहां कुछ समय रुककर सोचा जा सके। कुछ बातों की पड़ताल की जा सके और संभव हो तो उस अहसास को दबाने या कम करने के लिए कुछ उपायों को खोजा जा सके। मुझे बह वक्‍त बार बार याद आता हैं जब हम संचार का एकमात्र विकल्‍प रेडियो ही था जो समाज ,देश और पुरे विश्‍व को तमाम उथल पुथल के बावजूद एक गंभीर और संस्‍कारित सूत्रधार हाने के साथ भी अपनी विनम्र आवाज से ही बांधे रखता था, खामियाजा हमारे सामने रोज खडा हो रहा हैं, लोगो में पनप रहा उग्र स्‍वभाव सडको पर हैं, आगजनी, पत्‍थराव, जाम हत्‍या आत्‍महत्‍या एक आम बात होती जा रही है,मैं अन्‍ना की मुहिम को सत्‍ता परिवर्तन की महत्‍वकाक्षा से कतई अलग नही मानता, जिसका उदहारण में समय समय पर गाहे बगाहे अन्‍ना टीम और सत्‍ता से जुडे लोगो की बदजुबानी पुरे संवेधानिक मर्यादाओ को झकझोर रही हैं जिसमें मीडिया का उत्‍प्रेरण पुरे समाज को आन्‍दोलित करता प्रतीत हो रहा हैं,प्रशांतभूषण, केजरीवाल शरद पवार पर और समय समय पर मीडिया पर हमला इसी सच्‍चाई को बयान करता हैं, मेरा ये मानना हैं कि इस अतिवाद के फेर में देश के नीतिनिर्धारको को जिस तरह हम उलझा रखा हैं उससे तमाम योजनाऐ व विकाश प्रक्रिया आज इसी से उपजी असहमति की चपेट में हैं, जिस पर हावी मीडियापरस्‍ती से भी कतई इन्‍कार नही किया जा सकता, यह सवाल स्‍वभाबिक हैं कि अगर प्रजातंत्र के सयाने की जमात अगर संसद ही हैं तो सडको पर उत्‍पात करने वालो का जनाधार किसका और और इसका प्रजांत्रिक मूल्‍य कैसा हैं;;;;;;;;;
                                                        सतीश कुमार चौहान ,
भिलाई  17,12,2011  

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